प्रधानमंत्री मोदी के संघ की सत्ता में आने के बाद से यह माना जा रहा है कि भारत की विदेश नीति का स्वर्णिम युग चल रहा है। कई अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और संकटों के समय यह प्रत्यक्ष भी हुआ है। अफगानिस्तान संकट हो, यूक्रेन संकट हो या फिर मध्य एशिया या फिर कोई और संकट। हर जगह भारतीय कूटनीति के कारण भारतीय नागरिकों के हितो की रक्षा हो पाई है।किंतू इन सभी के साथ भारत के संबंध इसके पड़ोसी देशों के साथ निरंतर नीचे गिर रहे है। नेपाल में मधेशी आंदोलन के समय भारत का निष्क्रिय रहना आम नेपाली लोगो के मन में भारत के लिए घृणा भर गया।
मालदीव का इण्डिया आऊट का नारा भी भारत के प्रति द्वेष को दर्शाता है। पाकिस्तान हमारा चीर-परिचित शत्रु है, उसको सबक तो सिखाया गया, लेकिन तनाव और घृणा में कमी नही आई. श्रीलंका में आर्थिक संकट और उस संकट का राजनीतिक संकट में बदलना। कोलंबो बदरगाह का चीन को दिया जाना हमारी सुरक्षा पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है। बांग्लादेश की अराजकता का भारत की राजनीति , अर्थव्यवस्था, समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को छोड़ कर सिर्फ घरेलू राजनीति विशेष तौर पर दलगत राजनीति के नफे नुकसान को देखा जा रहा है। प्रशासन से सीधे मंत्री पद पर बैठे विदेश मंत्री सांसद में दलीले तो बहुत तगड़ी दे रहे हैं और उनकी दलीले सुनकर ऐसा लगता है की कूटनीति के मात्र केवल वही जानकर है।
एक सूट-बूट वाला व्यक्ति धोती-कुर्ता राजनीति के अनुकूल निर्णय नहीं कर सकता। विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री का मुख्य फोकस यूरोप और पश्चिमी विश्व पर है, लेकिन यह भूल गए है कि पड़ोस की आग कभी भी घर तक पहुंच सकती है और सब कुछ स्वाहा कर सकती है। सूट – बूट की विदेशनीति भारत को न तो निवेश दिलवा पा रही है और न ही सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता। क्या फायदा उस कूटनीति का को भारत को मात्र केवल खोखला नाम और सम्मान दे। प्रधानमंत्री का यूक्रेन दौरा भारत को विश्व में रूस के खिलाफ दिखाएगा और यह भारत की नीति के खिलाफ है। इसके दूरगामी परिणाम से हमे सावधान रहना चाहिए। हमे यह नही भूलना चाहिए यह वही रूस है जिसने हर संकट में भारत का साथ दिया है। प्रधानमंत्री को बांग्लादेश की स्तिथि पर ध्यान देना चाहिए। कही ऐसाना हो की भारत की वर्षो की मेहनत एक सुशाहस से खराब हो जाए।